तीन दशक पहले अमेरिका में संपन्न सुपर हाईवे सम्मेलन की छोटी-सी शुरुआत, जिस तरह इंटरनेट आधारित अर्थव्यवस्था के विविध सोपानों, जैसे- नए वेब ब्राउजर, मोबाइल इंटरनेट से लेकर ऑनलाइन पेमेंट, युद्धों में तकनीक का इस्तेमाल और अब जेनरेटिव एआई तक जा पहुंची है, वह उत्साहित करने के साथ डराती भी है।
तीस साल पहले की बात है। जनवरी का ग्यारहवां दिन था। जब सरकार, शिक्षा और संचार क्षेत्र की दो दर्जन से ज्यादा हस्तियां कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी में आयोजित एक भविष्य-उन्मुखी सम्मेलन में शामिल हुई थीं, जिसका नाम था-‘सुपर हाईवे समिट’। इससे जुड़ा एक दिलचस्प वाकया है। सम्मेलन का आयोजन दरअसल टेलीविजन, आर्ट्स व साइंसेज अकादमी के रिचर्ड फ्रैंक कर रहे थे, जिन पर चुटकी लेते हुए तत्कालीन अमेरिकी उपराष्ट्रपति अल गोर ने कहा, ‘जो टेलीविजन पर नहीं आया, समझो हुआ ही नहीं।’ ठीक ऐसा ही कुछ आप आज 2024 के लिए भी कह सकते हैं कि, जो इंटरनेट व सोशल मीडिया पर नहीं है, उसका अस्तित्व ही नहीं है। दुनिया में इंटरनेट के विकास का अलबत्ता एक लंबा इतिहास रहा है।
2024 में विश्व की औसत आयु करीब साढ़े 30 वर्ष अनुमानित है। इससे जाहिर होता है कि दुनिया की आठ अरब से ज्यादा आबादी का करीब आधा हिस्सा इंटरनेट के युग में ही पैदा हुआ है। पूरी दुनिया में इंटरनेट का उपयोग करने वालों की संख्या 5.3 अरब से ज्यादा है और यह लगातार बढ़ भी रही है। गूगल जो एक संज्ञा है, जवाब खोजने की क्रिया बन गई है। वेब (जाल) केवल वही नहीं रह गया, जो मकड़ियां बुनती हों। फिल्में व संगीत स्ट्रीम होने लगे हैं। सामाजिकता निभाने के लिए सोफे से उठने तक की जरूरत नहीं पड़ रही है।
अभिव्यक्तियां संक्षिप्त होती जा रही हैं। अमेरिकी विज्ञान गल्प कथाकार इसाक असिमोव की सभी भविष्यवाणियां अब मोबाइल की स्क्रीन पर साफ दिख रही हैं। हालांकि बदलाव का चक्र काफी छोटा रहा है। सबसे ज्यादा उपयोग में लाए गए एप्लीकेशन और सबसे बड़ी इंटरनेट आधारित कंपनियां हालिया इतिहास का अंग हैं। 1994 तक अमेजॅन की पहचान दक्षिण अमेरिका की केवल एक शांत नदी होने तक सीमित थी। उबर कोई सवारी नहीं, बल्कि एक विशेषण था। मेटा (पूर्व नाम फेसबुक), एक्स (पूर्व नाम ट्विटर), सर्वव्यापी व्हाट्सऐप, स्पॉटिफाई, शॉपिफाई, बुकिंग डॉट कॉम, एयरबीएनबी, नेटफ्लिक्स इत्यादि कॉरपोरेट की दुनिया की जेनरेशन जेड में शुमार होते हैं। तकनीकी पहुंच को भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें, तो अलग ही कहानी दिखेगी।
अलेक्जेंडर ग्राहम बेल को 1876 में टेलीफोन के लिए पेटेंट मिला। लेकिन, दो-तिहाई भारतीयों को 1990 के दशक तक फोन नहीं मिल सका था। इंटरनेट भी भारतीयों के नसीब में तब आया, जब 1995 में वीएसएनएल द्वारा मुहैया कराया गया। पर आज करीब 1.2 अरब भारतीय मोबाइल फोन और 80 करोड़ भारतीय इंटरनेट का उपयोग कर रहे हैं। 53 करोड़ से ज्यादा लोग व्हाट्सऐप पर हैं और यू-ट्यूब के कुल 2.7 अरब यूजर्स का पांचवां हिस्सा भारत में है।
इंटरनेट का सबसे महत्वपूर्ण प्रभाव ऑनलाइन भुगतानों में इसके बढ़ते उपयोग के रूप में दिखता है। भारत का डिजिटल सार्वजनिक मॉडल, आधार द्वारा प्रदत्त पहचान की बदौलत अब विकासशील दुनिया के लिए आदर्श बन चुका है। भारतीय राष्ट्रीय पेमेंट कॉरपोरेशन द्वारा दर्ज किए गए आंकड़ों के अनुसार, दिसंबर, 2023 में करीब 50 करोड़ आईएमपीएस भुगतान हुए। वहीं सर्वव्यापी यूपीआई प्लेटफॉर्म पर साढ़े 11 अरब भुगतान हुए। हालांकि वैश्विक आर्थिक विकास में इंटरनेट के योगदान पर निरंतर बहस चल रही है। मैकिंसे के अध्ययन के अनुसार, 2011 में इंटरनेट उपयोगकर्ता दो अरब थे, जबकि इंटरनेट आधारित इकनॉमी ने करीब 80 खरब डॉलर का योगदान दिया। विश्व बैंक की हालिया रिपोर्ट के अनुसार, डिजिटल इकनॉमी वैश्विक सकल घरेलू उत्पाद (वैश्विक जीडीपी) में 15 फीसदी से ज्यादा योगदान देती है और यह दुनिया की वास्तविक जीडीपी से ढाई गुना ज्यादा तेजी से बढ़ रही है।
ऑनलाइन भुगतानों से ग्राहक व कंपनियां, दोनों को फायदा पहुंचा है। बैंकों को बगैर ज्यादा शाखाएं खोले, बाजार में अपनी मौजूदगी बढ़ाने का मौका मिला है। म्यूचुअल फंड ने ऑनलाइन पहुंच बनाकर बचतकर्ताओं को फंड व निवेश के नए अवसर देकर अपनी पहुंच बढ़ाई है। लेकिन इसमें जोखिम भी हैं। जैसा अमेरिका में देखा गया, जहां जमाकर्ताओं ने कुछ ही घंटों में अपने खाते खाली कर दिए। हालांकि अब कंपनियां और नियामक भी इन जोखिमों से वाकिफ हैं।
यूक्रेन और पश्चिम एशिया के युद्धों में इंटरनेट आधारित आक्रामक और रक्षात्मक क्षमताएं बढ़ती दिखी हैं। आज चाहे लाल सागर संघर्ष हो, इस्राइल-फलस्तीन युद्ध हो या फिर रूस-यूक्रेन युद्ध, इंटरनेट आधारित तकनीकों ने एक नए उद्योग का आकार लिया है। हैरत नहीं कि मानव रहित हवाई वाहन और साइबर सुरक्षा सैन्य-उद्योग तंत्र के सबसे उभरते हुए पहलू रहे। ब्रिटिश उद्यमी मुस्तफा सुलेमान, जिसे ‘आने वाली लहर’ कहते हैं, दुनिया ठीक इसी कगार पर पहुंच चुकी है। निजी इक्विटी फंड, कंपनियां और सरकारें दो सौ अरब डॉलर से ज्यादा के निवेश के साथ अगली बड़ी छलांग के लिए तैयार हैं, जो जेनरेटिव एआई और कृत्रिम बुद्धिमत्ता से संबंधित हैं।
एआई से पूरी दुनिया को काफी उम्मीदे हैं। खासकर पहुंच, कौशल व अवसरों के क्षेत्र में विषमताओं को खत्म करने में। हालांकि यह आर्थिक, राजनीतिक और अस्तित्व संबंधी चिंताएं भी पैदा करता है। मानवीय प्रयासों की भूमिका सीमित होने के विचार के विभिन्न देशों में गंभीर निहितार्थ निकाले जा रहे हैं। राजनीतिक स्तर पर इससे ध्रुवीकरण के बढ़ने और सोशल मीडिया पर गुस्से व दुख के विस्तार की आशंका है।
कृत्रिम बुद्धिमत्ता के खतरे महज कल्पना नहीं, बल्कि वास्तविक भी हैं, जो नियामकों को इस पर नियंत्रण रखने की जरूरत को इंगित भी करते हैं। इस समस्या के समाधान की कोई गारंटी तो नहीं, पर अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा निकाय द्वारा परमाणु प्रतिष्ठानों के लिए सुझाया गया मार्ग एक अच्छा उपाय जरूर हो सकता है। यह ठीक वैसा ही उपाय है, जैसा सुनामी आने पर प्रतिबंध और चेतावनी की व्यवस्था होती है। हालांकि जरूरी नहीं कि यह उपाय काफी साबित हो। अलबत्ता इसके लिए वैश्विक समन्वय की जरूरत होगी। और, अगर दुनिया के अग्रणी नेताओं के पास इसका कोई हल नहीं है, तो वे एआई से परामर्श कर सकते हैं।
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