न्याय संहिता की नई सूरत: नए भारत के निर्माण में सहायक होंगे तीनों विधान

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गत वर्ष दिसंबर में संसद में तीन नए कानूनों का पारित होना और राष्ट्रपति द्वारा उन्हें अनुमोदित किया जाना, एक ऐतिहासिक अवसर था, जिसकी पूरे गणतंत्र को प्रतीक्षा थी। नए गणतांत्रिक बदलावों के तहत, 1860 में बनी आईपीसी को भारतीय न्याय संहिता, 1898 में बनी सीआरपीसी को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता और 1872 के भारतीय साक्ष्य अधिनियम को भारतीय साक्ष्य संहिता के नाम दिए गए हैं। लेकिन इन बदलावों को समझने के लिए पुराने कानूनों के इतिहास को देखना जरूरी है। 1857 में भारत की स्वाधीनता के पहले संघर्ष के उपरांत इन कानूनों की नींव रखी गई थी, जिनका मौलिक उद्देश्य था कि ब्रिटेन की सामंती प्राथमिकताओं को पूरी तरह से सुदृढ़ करते हुए उसके साम्राज्यवादी हितों की पूरी तरह सुरक्षा की जाए, इसीलिए ये तीनों कानून अपने मौलिक रूप में जन विरोधी भी कहे जाते थे। इन कानूनों का न केवल मौलिक स्वरूप परिवर्तित किया गया है, अपितु सामान्य जन को केंद्र में रखते हुए समाज के दुर्बल वर्गों को सर्वोच्च प्राथमिकता देते हुए इन कानूनों को नए रूप में नए नाम के साथ गौरवशाली राष्ट्र को समर्पित किया गया है।

 

भारतीय गणतंत्र में विचारों के आदान-प्रदान का खास महत्व है। यही प्रक्रिया नए कानूनों के निर्माण में भी अपनाई गई। पुराने कानूनों में बदलावों को प्रस्तावित करने वाली संसदीय समिति ने व्यापक भ्रमण, विचार-विमर्श, मंथन बैठकों आदि के माध्यम से सामाजिक परिवेश में जो अनिवार्यता थी तथा माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने समय-समय पर जो दिशा निर्देश दिए थे, उन सभी का समावेश इन तीनों नए कानून में किया है। देश भर के विधि व अन्य विश्वविद्यालयों, विद्यार्थियों, महिला संगठनों, मानवाधिकार संगठनों, अधिवक्ताओं और फॉरेंसिक विज्ञान के विशेषज्ञों के साथ विस्तारपूर्वक विचार-विमर्श और व्यावहारिकता को दृष्टिगत रखकर चरणबद्ध बैठकें हुईं। समाज के प्रत्येक वर्ग के विचारों एवं परामर्श पर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया और जन अपेक्षाओं को दृष्टिगत रखते हुए इन तीनों नए कानून में क्रांतिकारी परिवर्तन किए गए हैं। उग्र भीड़ द्वारा सामूहिक रूप से की जाने वाली हत्या यानी मॉब-लिंचिंग को अब अपराध की श्रेणी में रखा गया है और कठोरतम दंड (मृत्यदंड) प्रस्तावित किया गया है।

न्याय संहिता में राजद्रोह और देशद्रोह में फर्क स्पष्ट किया गया है, जहां राजद्रोह अब दंडनीय अपराध नहीं है, परंतु देशद्रोह दंडनीय अपराध होने के साथ-साथ इसके लिए सात वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक का प्रावधान रखा गया है। विवाह का लालच देकर धोखे एवं छल से किसी महिला के साथ शारीरिक संबंध बनाना अथवा उसका यौन शोषण करने पर 10 वर्ष के कठोर कारावास के दंड का प्रावधान किया गया है। भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता में भी बदले हुए परिवेश और तकनीकी संसाधनों की उपलब्धता को दृष्टिगत रखते हुए विभिन्न प्रकार की तकनीक का प्रयोग किया गया है जैसे, वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, अभिलेखों का डिजिटाइजेशन, पीड़िता के बयान की वीडियो रिकॉर्डिंग आदि अनिवार्य कर दी गई है, जिससे कि साक्ष्यों के साथ छेड़छाड़ न हो सके।

सीआरपीसी की धारा 41ए के स्थान पर धारा 35 एक अति महत्वपूर्ण धारा है, जिसमें यह व्यवस्था है कि कोई भी गिरफ्तारी बिना वरिष्ठ अधिकारी की पूर्व अनुमति के बिना संभव नहीं हो पाएगी, जिससे थाना स्तर पर आए दिन हो रहे अधिकारों को दुरुपयोग पर नियंत्रण हो सकेगा। प्रथम सूचना पंजीकृत करना एक अत्यंत दुष्कर कार्य है, जिसके बारे में सामान्य जनता पीड़ित दिखाई पड़ती है। दया याचिका में भी बड़े बदलाव किए गए हैं, जिसके अनुसार, राष्ट्रपति के समक्ष 60 दिन में और राज्यपाल के समक्ष 30 दिन में याचिका प्रस्तुत हो जानी चाहिए और राष्ट्रपति के निर्णय के उपरांत वह निर्णय किसी भी न्यायालय के कार्य क्षेत्र में नहीं आएगा।

भारतीय साक्ष्य अधिनियम को सुदृढ़ करते हुए पुराने अधिनियम की 23 धाराओं को संशोधित किया गया है और 170 धाराओं में वर्तमान कानून को शुद्ध रूप में प्रस्तुत किया गया है। ये तीनों नए कानून किसी क्रांति से कम नहीं है और इस गणतंत्र दिवस पर देश के जन-जन को एक अमूल्य वरदान की तरह हैं। इससे समाज के दुर्बल वर्ग को तो राहत मिलेगी ही, अपितु जो सामंती प्राथमिकताओं को प्रशस्त करने वाले कानून थे, उन्हें समाप्त कर सुदृढ़ कानून व्यवस्था के जरिये एक नए भारत के निर्माण में भी सहायक होंगे।

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